व्यवहारिक बुद्धि की जीत

एक स्थान पर चार मित्र ब्राह्मण युवक रहते थे, जो एक-दूसरे से बहुत प्रेम करते थे। उनमें से तीन ने गुरुकुल में जाकर शास्त्रों का गहरा अध्ययन किया था, जबकि चौथा अनपढ़ था। उसने भले ही कभी कोई औपचारिक शिक्षा न ली हो, पर उसमें व्यावहारिक समझ कूट-कूटकर भरी थी। इसके विपरीत, तीनों विद्वान ब्राह्मणों में किताबी ज्ञान तो प्रचुर था, पर जीवन के वास्तविक अनुभवों और व्यवहारिक बुद्धि का अभाव था।

एक दिन, तीनों विद्वान ब्राह्मणों ने सोचा, ‘हमारी इतनी सारी विद्या और ज्ञान तब तक व्यर्थ है, जब तक हम इससे सम्मान या धन अर्जित न कर लें। हमें राजधानी जाना चाहिए, जहाँ राजा और बड़े-बड़े धनी लोग हमारी विद्वत्ता को पहचान सकें। वहाँ जाकर अपनी विद्याओं का प्रदर्शन करने से हमें खूब सम्मान और धन मिलेगा।’

आखिरकार, यह तय हुआ कि अगले ही दिन वे सभी राजधानी के लिए प्रस्थान करेंगे।

उनमें से एक ब्राह्मण युवक ने कहा, ‘ठीक है, हम कल राजधानी की ओर चलेंगे। पर इस अनपढ़ युवक का वहाँ क्या काम? इसे साथ नहीं ले जाना चाहिए। इसने तो कोई विद्यालय नहीं देखा, राजा के सामने कोई विद्या का प्रदर्शन नहीं कर पाएगा और हम सबकी हंसी उड़वाएगा।’

इस पर दूसरे युवक ने कहा, ‘भले ही हमारा यह साथी धन या विद्या से रहित है, फिर भी हमें इस कारण उसे छोड़ना नहीं चाहिए। वह हमारा मित्र है, हमें उसे अवश्य अपने साथ ले जाना चाहिए।’

अंततः, तीनों ने मिलकर यह तय किया कि वे अपने अनपढ़ और विद्या-विहीन मित्र को भी अपने साथ ही ले जाएंगे।

अगली सुबह चारों राजधानी की ओर चल दिए। चलते-चलते वे एक घने जंगल में पहुँचे और वहाँ एक पेड़ के नीचे विश्राम करने के लिए रुके।

अचानक एक ब्राह्मण की नज़र पास पड़े हड्डियों के ढेर पर गई। उसने गौर से देखकर कहा, ‘अरे, ये तो किसी जीव की हड्डियाँ हैं। मेरे पास इन्हें जोड़ने की एक अनूठी विद्या है। राजा के पास प्रदर्शन करने से पहले, मैं यहीं क्यों न इसे आजमाऊँ?’ उसने तुरंत अपनी विद्या का प्रदर्शन किया और हड्डियों को इस तरह व्यवस्थित किया कि वे एक पूर्ण कंकाल का रूप ले लिया। यह एक शेर का कंकाल था।

दूसरा ब्राह्मण युवक बोला, ‘अब तुम मेरा कमाल देखो। मैं इस शेर के कंकाल पर मांस और मज्जा चढ़ा दूँगा, जिससे यह एकदम मृत शेर जैसा दिखेगा।’ उसने अपनी अद्भुत विद्या का प्रयोग किया और देखते ही देखते हड्डियों के ढाँचे पर मांस चढ़ गया। वह बिल्कुल एक शेर की आकृति में बदल गया था।

सभी दूसरे ब्राह्मण की कला की प्रशंसा कर रहे थे। तभी तीसरा ब्राह्मण बोला, ‘अब मैं अपनी सबसे श्रेष्ठ विद्या दिखाता हूँ। मैं इसमें प्राण डाल दूँगा, तब यह एकदम असली शेर की तरह चलने-फिरने और दहाड़ने लगेगा।’

यह सुनकर चौथे मित्र ने कहा, ‘भई, मैं अनपढ़ ज़रूर हूँ, पर इतना जानता हूँ कि जब तुम इस शेर को जीवित कर दोगे, तो यह सबसे पहले तुम्हें ही खाएगा। इसलिए मेरा कहना है कि ऐसा काम मत करो, जिससे तुम्हें बाद में पछताना पड़े।’

यह सुनकर तीनों विद्वान ब्राह्मण हँसने लगे। उन्होंने कहा, ‘भाई, तुम उच्च विद्या का महत्व नहीं समझते। उसकी प्रशंसा करने के बजाय तुम हमें डरा रहे हो। शेर जीवित होकर हमें क्यों खाएगा? क्या वह हमारा उपकार भूल जाएगा? वह तो हमें सिर झुकाकर प्रणाम करेगा।’

उस अनपढ़ ब्राह्मण ने फिर कहा, ‘मुझे अब भी यही लगता है कि शेर जीवित होते ही हमें खा जाएगा। इसलिए, पहले मुझे पेड़ पर चढ़ जाने दो, फिर तुम्हें अपनी महान विद्याओं का जो भी कमाल दिखाना हो, खुशी से दिखाना।’

इतना कहकर चौथा अनपढ़ ब्राह्मण युवक तुरंत एक ऊँचे पेड़ पर चढ़ गया। उधर तीसरे ब्राह्मण ने अपनी अपूर्व विद्या का प्रदर्शन किया और शेर के शरीर में जान डाल दी। उसकी विद्या वाकई अद्भुत थी, शेर ऐसे उठ खड़ा हुआ, जैसे गहरी नींद से जागा हो।

लेकिन जीवित होते ही शेर ने एक जोरदार दहाड़ लगाई और देखते ही देखते उन तीनों विद्वान ब्राह्मणों को मार डाला, जिनके पास अद्वितीय सिद्धियाँ थीं, पर दुनियादारी और व्यवहारिक ज्ञान का अभाव था।

चौथा ब्राह्मण युवक, भले ही अनपढ़ था, पर उसमें जीवन की गहरी व्यावहारिक समझ थी। यही कारण था कि वह जीवित बच गया। शेर के वहाँ से चले जाने पर वह धीरे से पेड़ से उतरा और अपने तीनों विद्वान मित्रों को शोकपूर्वक याद करता हुआ, चुपचाप अपने घर की ओर चल दिया।

चलते हुए वह मन ही मन सोच रहा था, ‘दुनिया की सभी विद्याएँ महान हैं, पर व्यवहार-ज्ञान उनसे भी कहीं अधिक बड़ा है। जीवन के व्यावहारिक ज्ञान के अभाव के कारण ही मेरे तीनों विद्वान मित्र अकाल मृत्यु का शिकार हुए!’

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