किसी नगर में मणिभद्र नामक एक अत्यंत धनी सेठ रहता था, जिसकी बहुत प्रतिष्ठा थी। वह बड़ा ही धार्मिक और दयालु स्वभाव का था, हमेशा दान-पुण्य और परोपकार के कार्य करता रहता था। इस कारण सभी लोग उसका आदर करते थे। परंतु, दुर्भाग्यवश किसी कारणवश उसका सारा धन नष्ट हो गया और उसकी हालत बहुत दयनीय हो गई। धन खो देने पर उसके वे सभी मित्र और रिश्तेदार, जो कभी उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे, अब उसे ताने देने लगे। उसका जीवन अपमान से भर गया।
आखिरकार, दुःख और ग्लानि से भरकर उसने सोचा, ‘धन के बिना जीना नरक समान है। जो लोग कभी मेरे सामने आँख भी नहीं उठाते थे, वे आज अकड़ कर बात करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि मेरे पास अब पहले जैसा धन और संपत्ति नहीं है।’ यहाँ तक कि जिन लोगों का कर्ज उसे चुकाना था, वे सपने में आकर उसे भयभीत करते थे। तब सेठ के मुँह से बार-बार निकलता था, “हाय, इस जीवन को तो धिक्कार है, लाख-लाख धिक्कार।”
अत्यधिक दुखी होकर मणिभद्र ने आत्महत्या करने का निर्णय किया। उसने निश्चय किया कि वह सुबह उठते ही अपना जीवन समाप्त कर देगा और इसी सोच के साथ वह सो गया। उस रात जब वह सो रहा था, तभी सपने में उसे एक जैन साधु दिखाई दिए। साधु ने मणिभद्र को दिलासा देते हुए कहा, “भाई, तुम इतने परेशान क्यों होते हो? मैं तुम्हारे और तुम्हारे पूर्वजों के पुण्य कार्यों द्वारा संचित पद्मनिधि हूँ। कल सुबह मैं साधु के रूप में तुम्हारे घर आऊँगा। जैसे ही मैं तुम्हारे घर की देहरी पर पहुँचूँ, तुम मुझ पर लाठी से प्रहार करना। तब मैं मरकर सोने में बदल जाऊँगा। तुम्हें पूरे तीन मन सोना प्राप्त होगा। तुम इस सोने से नए सिरे से व्यापार शुरू करो और जल्दी ही तरक्की करके फिर से नगर सेठ बन जाओगे।”
यह सुनकर मणिभद्र को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह रात भर इसी बात पर विचार करता रहा कि सुबह उठते ही जैन साधु पद्मनिधि पर लाठी से चोट करनी है। सुबह जब वह उठा तो भी सपने के बारे में ही सोच रहा था। अचानक उसे उसी प्रकार पद्मनिधि घर में आता हुआ दिखाई दिया। उसी समय एक नाई भी वहाँ आ गया, जिसे उसकी पत्नी ने घर बुलाया था। जैसा कि सपने वाले जैन साधु ने कहा था, मणिभद्र ने सामने दिखाई पड़े साधु पर लाठी से प्रहार किया। साधु तुरंत गिरकर मर गए और सोने की मूर्ति में बदल गए। मणिभद्र ने नाई की मदद से उसे घर के भीतर वाले कक्ष में रखवा दिया। फिर नाई को कुछ धन देकर कहा, “तुम यह बात किसी को मत बताना।”
नाई ने यह सब देखा तो उसे बड़ा अचंभा हुआ। वह सोचने लगा, “अरे, यह तो कोई जादुई रहस्य है।” फिर उसके मन में विचार आया कि ये जैन साधु बड़ी तंत्र-विद्या जानते हैं। क्या आश्चर्य कि इन्हीं सिद्धियों के कारण इनके पास ढेर सारा सोना और दौलत हो! अब नाई ने सोचा, ‘मुझे भी दौलत हासिल करने का यही तरीका आजमाना चाहिए। यह तो सबसे आसान है।’
कुछ समय बाद वह जैन साधुओं के आश्रम में गया और बोला, “कल आप सुबह मेरे घर चलकर भोजन करें तो बड़ी कृपा होगी।” इस पर जैन साधुओं के प्रमुख आचार्य ने कहा, “अरे भाई, हम उस तरह के साधु नहीं हैं। हम किसी के घर भोजन करने नहीं जाते। भूख लगी हो तो आसपास जहाँ से भी मिल जाए, मुट्ठी अन्न ग्रहण कर लेते हैं। बस वही हमारा भोजन है।” इस पर नाई ने आग्रह करते हुए कहा, “आपकी बात ठीक है, पर मैं एक और कारण से यह आग्रह कर रहा हूँ। मेरे पास ढेर सारा धन है जिसे मैंने धर्मार्थ दान के लिए इकट्ठा किया हुआ है। उसे आप लोग ग्रहण कर लें तो मुझ पर बड़ी कृपा होगी।”
उसकी ऐसी श्रद्धा देखकर सभी साधुओं ने सोचा, ‘तब तो हम सभी को चलकर वहाँ जरूर जाना चाहिए ताकि इस धर्म, कर्म और परोपकार करने वाले दयालु व्यक्ति का मनोबल बढ़े।’ लिहाजा सब साधु वहाँ चलने के लिए तैयार हो गए। उधर नाई ने खूब तेल पिलाकर एक लाठी तैयार कर ली थी और उसे घर के द्वार के पास ही छिपाकर रख दिया था। फिर वह साधुओं को लेने के लिए चल पड़ा।
जैसे ही जैन साधु उसके यहाँ आए, उसने एक-एक के सिर पर जोर से लाठी की चोट करनी शुरू की। साधु कई थे, पर बेचारे अहिंसा के मंत्र में बँधे हुए थे। लिहाजा पलटकर मारने की बजाय सब मार खा-खाकर गिरने लगे। चीख पुकार और कोहराम मच गया। किसी ने दौड़कर राजा को भी यह बात बता दी। राजा ने सैनिकों को वहाँ भेजा जो उसे पकड़कर राजदरबार में ले गए।
राजा ने गुस्से में आकर नाई से पूछा, “तुमने इन सीधे-सादे जैन साधुओं को क्यों मारा? अहिंसा व्रत का पालन करने वाले इन सीधे-सरल साधुओं ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?” इस पर नाई ने वह पूरा किस्सा बता दिया जो उसने सेठ मणिभद्र के यहाँ देखा था। सेठ मणिभद्र को बुलवाया गया। तो उसने अपने सपने का पूरा हाल बताया कि जैन साधु ने ही उसे सपने में आकर ऐसा करने के लिए कहा था।
इस पर राजा और सभी लोगों ने नाई को खूब फटकार लगाई। कहा, “अरे भाई, किसी दूसरे को देखकर, आँख बंद करके वैसा नहीं करने लग जाना चाहिए। पहले उसका पूरा भाव समझना चाहिए कि वह ऐसा क्यों कर रहा है? बिना समझे दूसरों की नकल करने वालों का वैसा ही बुरा हाल होता है, जैसे तुम्हारा।” यह कहकर राजा ने साधुओं की हत्या करने के अपराध में नाई को दंड की सजा दी। उधर नाई सोचता रहा, ‘आह, अपनी मूर्खता से मैंने खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली।’