सच्चाई का कड़वा फल

एक नगर में युधिष्ठिर नाम का एक कुम्हार रहता था। एक दिन वह कहीं जा रहा था कि अचानक उसका पैर फिसला और वह ज़मीन पर गिर पड़ा। नीचे एक धारदार घड़े का टुकड़ा पड़ा था, जो उसके माथे पर जा लगा। खून बहुत बहा और घाव पर पट्टी बंधवाने के बाद भी, उसके माथे पर एक गहरा और स्थायी निशान बन गया, जो दूर से ही स्पष्ट दिखाई देता था।

कुछ समय बाद, उस राज्य में भयंकर अकाल पड़ा, जिससे युधिष्ठिर को दूसरे राज्य की ओर प्रस्थान करना पड़ा। वहाँ उसने राजा से काम माँगा। राजा की नज़र युधिष्ठिर के माथे पर पड़े निशान पर पड़ी। राजा ने सोचा, “यह निशान निश्चय ही किसी पराक्रमी योद्धा का है, जो किसी भीषण युद्ध में लगा होगा। ऐसे वीर पुरुष की तो हमें क़द्र करनी चाहिए।” इसी विचार से प्रभावित होकर राजा ने तुरंत उसे अपनी सेना की एक टुकड़ी का नायक नियुक्त कर दिया। युधिष्ठिर के दिन अब सुख-शांति से बीतने लगे।

एक दिन शत्रु राजा ने उस राज्य पर हमला कर दिया। संकट की इस घड़ी में राजा ने अपनी सेना के सभी प्रमुख सरदारों को बुलाया। फिर उसने युधिष्ठिर को अलग से बुलाकर पूछा, “तुम्हारे माथे पर लगा यह निशान तुम्हारी वीरता की कहानी कहता है। यदि बुरा न मानो, तो कृपया बताओ कि तुम कहाँ के हो और किस युद्ध में तुम्हें यह गंभीर घाव लगा था?”

युधिष्ठिर ने सोचा कि राजा ने उसे आश्रय दिया है, इसलिए उसे सच बताना चाहिए। उसने कहा, “महाराज, सच कहूँ तो मैं कोई वीर राजपूत नहीं, बल्कि बर्तन बनाने वाला एक साधारण कुम्हार हूँ। एक दिन मैं गिर गया और एक टूटे हुए घड़े का टुकड़ा मेरे माथे में चुभ गया, जिससे यह चोट लगी।”

यह सुनकर राजा का चेहरा उदास हो गया। अपनी मूर्खता पर उसे बहुत लज्जा महसूस हुई। राजा ने युधिष्ठिर से कहा, “ठीक है, अब तुम तुरंत यहाँ से जाने की तैयारी करो। जिस काम के लिए तुम्हें नियुक्त किया गया था, तुम उसके योग्य नहीं हो।”

युधिष्ठिर बहुत दुखी हुआ। उसने राजा से विनती की, “महाराज, कृपया मुझे एक बार अपनी स्वामीभक्ति साबित करने का अवसर दें। मैं आपके लिए खुशी-खुशी अपनी जान देने को भी तैयार हूँ। मुझे युद्ध-क्षेत्र में अपनी बहादुरी दिखाने का एक मौका ज़रूर दें।” राजा ने जवाब दिया, “हमें तुम्हारी स्वामिभक्ति पर कोई संदेह नहीं है, लेकिन स्वामीभक्त होना अलग बात है और युद्ध में शत्रु सेना का सामना करना बिल्कुल अलग। मुझे लगता है कि तुम लड़ नहीं पाओगे और इससे अन्य सैनिकों का मनोबल भी गिरेगा। इसलिए बेहतर यही है कि तुम तुरंत यह राज्य छोड़ दो।”

युधिष्ठिर उसी क्षण उस राज्य को छोड़कर चल दिया। उसके दुख का कोई ठिकाना नहीं था। रास्ते में वह यह सोचता जा रहा था, “काश, मैंने अपने माथे की चोट के बारे में कोई काल्पनिक वीरता की कहानी सुना दी होती। मैंने बेवजह सच बोलकर अपने लिए मुसीबत मोल ले ली।” कभी-कभी जहाँ थोड़ी समझदारी की ज़रूरत हो, वहाँ सच्चाई बोलना भी उलटा पड़ जाता है, जैसा कि युधिष्ठिर कुम्हार के साथ हुआ। जो भी उसकी कहानी सुनता, वह मुस्कुरा देता, और युधिष्ठिर अपमान का घूँट पीकर रह जाता।

Leave a Comment