एक शिकारी था, जिसका स्वभाव अत्यंत निर्दयी और क्रूर था। एक दिन वह शिकार की तलाश में गहरे जंगल में भटक रहा था। तभी उसकी नज़र एक कबूतरी पर पड़ी, जो बेख़बर होकर बैठी थी। बहेलिए ने उसे तुरंत लपककर पकड़ लिया और अपने पिंजरे में क़ैद कर लिया।
कबूतरी को पिंजरे में बंद करने के बाद, शिकारी घर लौटने की सोचने लगा। पर तभी अचानक तेज़ बारिश शुरू हो गई और बड़े-बड़े ओले गिरने लगे। ठंडी हवाएँ चलने लगीं, जिससे वह बुरी तरह ठिठुरने लगा। सर्दी से परेशान होकर और शरीर में जान न होने के कारण, वह उसी पेड़ के नीचे बैठ गया जहाँ एक कबूतर रहता था। ठंड से उसका बुरा हाल था और वह इतना कमज़ोर हो चुका था कि उठ भी नहीं पा रहा था।
उधर पेड़ पर बैठा कबूतर अपनी पत्नी की प्रतीक्षा कर रहा था। जब वह नहीं आई तो कबूतर घबरा गया। तभी उसकी नज़र नीचे पिंजरे में बंद अपनी कबूतरी पर पड़ी। उसे देखकर वह अत्यंत दुखी हुआ और विलाप करने लगा, “हे प्रिय कबूतरी! तुम कितनी बड़ी विपत्ति में फँस गई हो! मैं तुम्हारे पास ही हूँ, पर दुर्भाग्यवश कुछ कर नहीं पा रहा। मैंने तुम्हें कभी पर्याप्त सुख नहीं दिया और अब जब तुम संकट में हो, मैं कितना असहाय हूँ। धिक्कार है उस पति को जो अपनी पत्नी को दुखी देखकर भी उसकी मदद न कर पाए।”
कबूतरी ने पति की बात सुनकर कहा, “हे मेरे प्राणप्रिय, तुमने मुझे जीवन का हर सुख दिया है। जिस स्त्री को अपने पति का सच्चा प्रेम मिल जाए, उसके लिए एक दिन का सुख भी सौ वर्षों के सुख के बराबर है। इसलिए तुम दुखी मत होओ और इस शिकारी पर भी क्रोध मत करो। उसका स्वभाव ही पक्षियों का शिकार करना है। मैं नहीं तो कोई और पंछी उसके जाल में फँस जाता। हर प्राणी अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करता है। अब दुःख छोड़कर यह सोचो कि यह बहेलिया हमारे घर आया है, यह हमारा अतिथि है। हम किस प्रकार इसका आतिथ्य सत्कार करें?”
कबूतरी की बात सुनकर कबूतर क्रोध से भर उठा और बोला, “क्या मैं इस निर्दयी व्यक्ति का सत्कार करूँ जिसने मेरी प्रिय पत्नी को मुझसे छीन लिया है और जिसे घर ले जाकर मारने का विचार कर रहा है?” लेकिन कबूतरी ने जब बार-बार विनम्रतापूर्वक आग्रह किया, तब कबूतर नरम पड़ा और बोला, “ठीक है, मैं इस अतिथि के स्वागत के लिए कुछ अवश्य करता हूँ।”
यह सुनकर कबूतर तुरंत उड़ गया और कहीं से जलती हुई लकड़ियाँ ले आया। उसने उन्हें शिकारी के पास रख दिया, जिससे उसे थोड़ी गर्मी मिली और शरीर में कुछ शक्ति लौट आई। शिकारी थोड़ा हिलने-डुलने और उठकर बैठने लायक हो गया। कबूतर ने फिर कहा, “हे अतिथि, क्षमा करना। मैं एक साधनहीन प्राणी हूँ और जैसा आतिथ्य आपका होना चाहिए, वह नहीं कर पा रहा हूँ। मेरी इच्छा है कि आप मेरी देह को ग्रहण कर अपनी भूख शांत करें।” इतना कहकर कबूतर उड़ता हुआ उस आग में कूद पड़ा।
यह हृदय विदारक दृश्य देखकर शिकारी अत्यंत दुखी हुआ और जोर-जोर से रोने लगा। पश्चाताप के इस आवेग में उसने तुरंत पिंजरे का द्वार खोला और कबूतरी को आज़ाद कर दिया। कबूतरी ने अभी-अभी अपने पति को अग्नि में कूदकर प्राण त्यागते देखा था। वह भी विलाप करती हुई बोली, “हे मेरे प्रिय, जब तुम ही नहीं हो तो मैं इस संसार में रहकर क्या करूँगी?” इतना कहते ही वह भी बिना सोचे-समझे उसी अग्नि में कूद पड़ी और देखते ही देखते कबूतर और कबूतरी दोनों जलकर भस्म हो गए।
शिकारी ने अपनी आँखों से यह मार्मिक दृश्य देखा था। उसे यह समझते देर नहीं लगी कि उसके हिंसक कर्मों का ही यह परिणाम था कि उन निर्दोष कबूतर और कबूतरी को अपने प्राणों का बलिदान देना पड़ा। इस घटना से उसका हृदय इतना विचलित और दुखी हुआ कि वह तुरंत उठा और पागलों की तरह जंगल में भटकने लगा। उसने अपना क्रूर स्वभाव छोड़ दिया। उसके शरीर पर काँटों से घाव हो गए, पर वह इसी अवस्था में जंगल में घूमता रहा। अब वह दीन-दुखियों के कष्ट देखकर अपनी परवाह न करते हुए उनकी सहायता करता।
उसके इस अभूतपूर्व बदलाव को देखकर सभी उसकी प्रशंसा करने लगे। लोगों ने उसे ‘दयामय’ नाम दिया। दयामय बना वह पूर्व शिकारी जंगल में बहुत समय तक रहा और अपने दयालु स्वभाव से उसने सभी का मन जीत लिया। अब जंगल के सभी प्राणी उससे प्रेम करने लगे थे।