सौ मुद्राओं का श्लोक

नगर में सागरदत्त नामक एक बहुत धनी और प्रसिद्ध व्यापारी रहते थे। उनका बेटा अत्यंत समझदार और बुद्धिमान युवक था, जो सदैव कुछ न कुछ विचार करता रहता था। उसने कई ग्रंथों का गहराई से अध्ययन किया था और उनके उत्तम विचारों को अपने जीवन में भी उतार लिया था। इसी कारण वह अपना जीवन अपनी इच्छा अनुसार जीना चाहता था।

परंतु सागरदत्त को अपने बेटे का यह विचार पसंद नहीं था। वे चाहते थे कि उनका बेटा भी उन्हीं की तरह व्यापार में अपना मन लगाए। उनका दृढ़ विश्वास था कि जीवन में धन ही सब कुछ है, धन के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए वे बार-बार बेटे को व्यापार पर ध्यान देने के लिए कहते थे, पर उनकी बातों का बेटे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।

एक दिन वह युवक कहीं जा रहा था। रास्ते में उसे एक विद्वान व्यक्ति मिला, जो सौ मुद्राओं में एक श्लोक बेच रहा था। सागरदत्त के बेटे ने कौतूहलवश उससे श्लोक का महत्व पूछा, तो विद्वान ने बताया कि यह श्लोक बहुत महत्वपूर्ण है और जीवन के हर मोड़ पर काम आने वाला है। यही कारण है कि इसका मूल्य इतना अधिक है।

यह सुनकर व्यापारी के बेटे को बहुत जिज्ञासा हुई। उसने तुरंत अपनी जेब से सौ मुद्राएँ निकालीं और उस विद्वान व्यक्ति से वह श्लोक खरीद लिया। फिर उसने बड़े ध्यान से उस श्लोक को पढ़ा। कागज पर लिखे उस श्लोक का अर्थ था कि ‘किसी भी प्राणी को जीवन में जो कुछ मिलना तय है, वह हर हाल में उसे मिलता ही है। और जो कुछ नहीं मिलना होता, वह कितनी भी कोशिश करने पर भी कभी प्राप्त नहीं होता।’

सागरदत्त के नवयुवक बेटे को यह बात बहुत अच्छी लगी। उसने इस शिक्षा को अपने मन में गहराई से बिठा लिया।

जब वह घर आया और पिता ने उससे पूछा, तो उसने बताया कि उसने सौ मुद्राओं में एक बहुत अच्छा श्लोक खरीदा है। यह सुनकर पिता ने अपना माथा पीट लिया और बोले, “मुझे यह समझ नहीं आता कि तुम मेरे बेटे होकर भी इतने मूर्ख और नालायक कैसे हो गए?”

पिता की ये बातें सुनकर व्यापारी के बेटे को बहुत दुख हुआ। वह उसी क्षण अपना घर छोड़कर निकल पड़ा। चलते-चलते वह एक अनजान शहर में जा पहुँचा। वहाँ वह इधर-उधर भटकने लगा। उसके पास रहने का कोई निश्चित ठिकाना नहीं था, इसलिए जहाँ मन करता, वहीं रुक जाता था। उसे किसी न किसी तरह भोजन का प्रबंध भी हो जाता था। रास्ते में जो भी व्यक्ति उसे मिलता या उससे बात करता, वह उससे बस एक ही बात कहता था कि “जो मिलना है, वह तो हर हाल में मिलता ही है और जो नहीं मिलना है, वह कितनी भी कोशिश कर ले, हाथ में नहीं आता।”

उसकी बातें सुनकर लोगों ने उसे एक सिद्धपुरुष समझ लिया और उसका एक अनोखा नाम रख दिया – ‘प्राप्तव्य अर्थ’। जो कुछ वह कहता था, उसका सार भी यही था। इसलिए लोगों को उसका यह नाम बहुत पसंद आया।

उस अनजान शहर में प्राप्तव्य अर्थ कई दिनों तक भटकता रहा। उसे अनेक अद्भुत अनुभव हुए। यहाँ तक कि राजकुमारी और मंत्री की बेटी भी उसके व्यक्तित्व से प्रभावित हुईं। बिना किसी प्रयास के चारों ओर से उस पर सौभाग्य की वर्षा होने लगी। यह सब देखकर वह स्वयं भी हैरान था और इस पर उस श्लोक में उसका विश्वास और भी गहरा होता चला गया।

लोग उसे देखकर और उसकी बातें सुनकर चकित रह जाते थे। कई लोग उसकी प्रशंसा करते और उसे अपने साथ रखना चाहते थे। परंतु वह विचारशील युवक तो बस घूमता ही रहता, मानो उसके पैरों में चक्कर हों। वह सबसे बस एक ही बात कहता था कि जो मिलना है, वह तो हर हाल में मिलता ही है, और जो नहीं मिलना है, वह कितनी भी कोशिश करने पर भी हासिल नहीं होता। लोग उसकी बातें सुनकर हैरान होते और मन ही मन उनका अर्थ सोचते रहते।

एक दिन, प्राप्तव्य अर्थ कहीं जा रहा था। सामने से एक बारात आ रही थी। यह वरकीर्ति की बारात थी, जिसका विवाह एक बड़े सेठ की बेटी से हो रहा था। प्राप्तव्य अर्थ भी उस बारात में शामिल हो गया और बारात के साथ-साथ विवाह-मंडप में पहुँच गया।

वह उस नगर के एक बहुत बड़े सेठ का भव्य महल था। विवाह-मंडप को बहुत सुंदर ढंग से सजाया गया था और वह दूर से दीपमालाओं की जगमगाहट से चमक रहा था। प्राप्तव्य अर्थ को यह नजारा बहुत अच्छा लगा। उत्सुकतावश वह वहीं खड़ा हो गया।

तभी अचानक एक अजीब घटना घटी। बारात में आया एक हाथी अचानक बिगड़ गया। वह मदमस्त हाथी सामने आने वाली हर चीज़ को कुचलता हुआ दौड़ रहा था। दौड़ते-दौड़ते वह दुल्हन के ठीक सामने आ गया। ऐसा लग रहा था कि वह उस दुल्हन को गुस्से में अपने पैरों तले कुचल देगा या फिर सूँड़ में उठाकर दूर फेंक देगा।

दुल्हन ने घबराकर दूल्हे की ओर देखा। मगर उसका कायर दूल्हा उसे बचाने की बजाय खुद ही डरकर वहाँ से भाग निकला।

प्राप्तव्य अर्थ ने दूर से यह घटना देखी तो तुरंत समझ गया कि दुल्हन के प्राण संकट में हैं। उसने अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया। वह दौड़कर वहाँ पहुँचा और बड़ी हिम्मत के साथ उस मदमस्त हाथी को काबू में कर लिया। प्राप्तव्य अर्थ की वीरता के साथ-साथ उसकी बुद्धिमता और समझदारी ने भी दुल्हन को प्रभावित किया। उसे ज्ञात था कि प्राप्तव्य अर्थ के कारण ही उसके प्राण बच सके। इसलिए उसने उसी समय घोषणा की कि “विवाह-मंडप से कायर की तरह भाग जाने वाले दूल्हे से मैं विवाह नहीं करूंगी। मैं इसी वीर और बुद्धिमान युवक प्राप्तव्य अर्थ से विवाह करूंगी, जिसने मदोन्मत्त हाथी से मुझे बचाया और मुझे नया जीवन दिया।”

यह सुनकर लोग अवाक् रह गए। कुछ देर बाद जब वर-पक्ष के लोग और दूल्हा वहाँ आए, तो दुल्हन का निर्णय सुनकर उन्होंने तीव्र विरोध शुरू कर दिया। वहाँ एक बड़ा झगड़ा छिड़ गया।

इतने में किसी ने राजा को भी सूचना दे दी। राजा वहाँ आया। सारी बात सुनकर उसने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा, “जो पति इस कदर कायर था कि दुल्हन को असहाय छोड़कर विवाह-मंडप से भाग निकले, उसे भला दुल्हन का पति होने का क्या अधिकार है? जिसने वीरता से उसकी रक्षा की है, वही उसके पति होने योग्य है। वैसे भी, यदि दुल्हन उस मदमस्त हाथी का शिकार हो जाती और अपनी जान गँवा देती, तो भला दूल्हा किससे विवाह करता? अतः निश्चित रूप से विवाह करने का हक विवाह-मंडप छोड़कर भाग जाने वाले कायर पति का नहीं, बल्कि प्राप्तव्य अर्थ का है। दुल्हन का निर्णय एकदम सही है।”

फिर तो सब ओर राजा और व्यापारी सागरदत्त के बुद्धिमान बेटे की प्रशंसा होने लगी।

कुछ दिनों बाद जब प्राप्तव्य अर्थ अपने नगर लौटा, तो उसके पिता सागरदत्त सारी बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुए।

अब उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया था और यह समझ में आ गया था कि उसी अमूल्य श्लोक ने उनके बेटे का पूरा जीवन बदल दिया, जिसे उसने सौ मुद्राओं में खरीदा था।

सच ही कहा गया है कि ज्ञान का कोई मोल नहीं है। यह दुनिया का सबसे अनमोल खजाना है। व्यापारी के बुद्धिमान बेटे ने उसी ज्ञान की कद्र की और एक दिन अपने भाग्य से सभी को मुग्ध और चकित कर दिया।

Leave a Comment