अपनी समस्या सबसे छोटी

प्राचीन काल में एक शांत गाँव में एक ज्ञानी संत निवास करते थे। उनकी बुद्धिमत्ता और समस्याओं को सुलझाने की क्षमता दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी। गाँव के लोग अपनी हर परेशानी लेकर उनके पास आते और संत उन्हें सही मार्गदर्शन देते। धीरे-धीरे उनकी ख्याति इतनी बढ़ गई कि हर ओर से लोग अपनी दुविधाएँ लेकर आने लगे। इस निरंतर भीड़ और शोर-शराबे से संत का मन विचलित होने लगा; वे एक साधारण और एकांत जीवन जीना चाहते थे।

एक रात, बिना किसी को बताए, संत चुपचाप गाँव छोड़कर पहाड़ों की ओर निकल पड़े। उन्होंने एक दुर्गम स्थान पर अपनी कुटिया बनाई और शांति से रहने लगे। लेकिन उनकी प्रसिद्धि ऐसी थी कि गाँव वाले उन्हें ढूँढते हुए उन ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए आखिरकार उन तक पहुँच ही गए। उनकी कुटिया के बाहर फिर से लोगों का जमावड़ा लगने लगा, सभी अपनी-अपनी समस्याओं के समाधान की उम्मीद लिए बैठे थे।

संत ने लोगों की भीड़ देखी और गंभीर स्वर में कहा, “मैं तुम्हारी समस्याओं का समाधान अवश्य करूँगा, परंतु मेरी एक शर्त है। समाधान मिलने के बाद तुम सब यहाँ से चले जाओगे और कभी वापस नहीं आओगे, न ही किसी और को इस स्थान का पता बताओगे।” सभी लोग इस शर्त पर सहमत हो गए। जब संत ने एक-एक करके समस्याएँ पूछनी शुरू कीं, तो वहाँ बाज़ार जैसा शोर मच गया, हर कोई अपनी बात पहले कहना चाहता था।

संत ने सबको शांत रहने का इशारा किया और बोले, “तुम सब अपनी-अपनी समस्याएँ एक कागज़ पर लिखकर मुझे दे दो।” लोगों ने जल्दी-जल्दी अपनी परेशानियाँ लिख दीं। संत ने उन सभी पर्चियों को एक बर्तन में डाल दिया और अच्छी तरह मिला दिया। फिर उन्होंने कहा, “अब तुम में से हर कोई एक पर्ची उठाओ। जो समस्या उस पर्ची में लिखी है, तुम उसे अपनी समस्या के बदले ले सकते हो।” लोगों ने एक-एक पर्ची उठाई और उनमें लिखी समस्याओं को पढ़ा।

सभी ने पर्चियों पर लिखी समस्याओं को ध्यान से पढ़ा, लेकिन कोई भी अपनी समस्या छोड़कर दूसरी पर्ची वाली समस्या लेने को तैयार नहीं हुआ। हर किसी को दूसरे की समस्या अपनी समस्या से ज़्यादा बड़ी और कठिन लगी। अंततः, सबने महसूस किया कि उनकी अपनी समस्याएँ दूसरों की तुलना में कहीं अधिक छोटी और सहने योग्य थीं। सबने संत को प्रणाम किया और अपने-अपने रास्ते चले गए, एक गहरी सीख के साथ कि हर व्यक्ति की अपनी कठिनाइयाँ होती हैं और हमें कभी अपनी समस्या को सबसे बड़ा नहीं समझना चाहिए।

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