सड़क पर पड़े पत्थरों के बीच से एक पत्थर ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित किया। “मैं भला क्यों दूसरों के साथ बंधा रहूं? मैं भी तो अपनी राह बना सकता हूँ!” उसने सोचा। तभी एक लड़का आया और उसे उठा लिया। पत्थर गर्व से भर उठा, “मैं चलना चाहता था, और देखो, मैं चल रहा हूँ! मेरी इच्छाशक्ति असीम है।” लड़के ने उसे एक घर की ओर फेंक दिया। पत्थर ने मन ही मन कहा, “मैं उड़ना चाहता था, और अब मैं उड़ रहा हूँ! इसमें कोई बड़ी बात नहीं।” वह जाकर शीशे से टकराया, और शीशा टूट गया। शीशा चिल्लाया, “मूर्ख! तुमने यह क्या किया? मैं तो टूट गया!” पत्थर ने दंभ से कहा, “बेहतर होता कि तुम मेरी राह में नहीं आते। सब कुछ मेरी इच्छा से होना चाहिए।”
घर का नौकर आया और उसने उस अहंकारी पत्थर को उठाकर खिड़की से बाहर फेंक दिया। पत्थर फिर से सड़क पर आ गिरा, अपने पुराने साथियों के बीच। वहाँ उसने अपनी नई कहानी शुरू की, “दोस्तों, मैं तो एक महल में निमंत्रण पर गया था, लेकिन मुझे वहाँ की शान-ओ-शौकत पसंद नहीं आई। मेरा मन तो आप लोगों के लिए तरस रहा था। सो, मैंने वहाँ की परवाह नहीं की और आप सभी के बीच लौट आया हूँ।” अन्य पत्थर उसकी बातों पर शांत रहे, यह समझते हुए कि दिखावा और सच्चा अनुभव दोनों अलग होते हैं। यह घटना हमें सिखाती है कि सच्चा सम्मान और पहचान बाहरी यात्राओं से नहीं, बल्कि आंतरिक विनम्रता और कर्मों से मिलते हैं।
एक किताब थी जिसमें चूहे पकड़ने के उपाय विस्तार से बताए गए थे। एक दिन, उस किताब के मालिक ने उसे रसोईघर में ही छोड़ दिया। देखते ही देखते, लंबे दाँतों वाले चूहों ने उस किताब पर आक्रमण कर दिया। अपनी दुर्दशा देखकर किताब चीख उठी, “मूर्ख चूहों! जानते हो मैं कौन हूँ? मैं वह किताब हूँ जिसमें तुम्हें पकड़ने के कौशल बताए गए हैं! तुम सब व्यर्थ ही अपनी मौत को बुलावा दे रहे हो।”
किताब की इन गर्व भरी बातों पर चूहों ने कोई ध्यान नहीं दिया। वे उसे कुतरते रहे और थोड़ी ही देर में वह किताब कागज़ के टुकड़ों के ढेर में बदल गई। यह घटना हमें एक गहरा सबक देती है कि किसी विषय पर कितना भी ज्ञान क्यों न हो, यदि उसे व्यवहार में न लाया जाए, तो वह व्यर्थ है। सिर्फ़ यह जान लेना कि क्या करना चाहिए, पर्याप्त नहीं होता; महत्वपूर्ण यह है कि आप उस ज्ञान को क्रियान्वित करें।