आर्य और नेहा, दोनों किताबों के गहरे शौकीन थे। उनकी पहली मुलाकात शहर की पुरानी लाइब्रेरी में हुई, जहाँ धूल से सने शेल्फों के बीच वे अक्सर एक ही कोने में बैठते थे। एक दिन, नेहा की नज़र आर्य पर पड़ी, जब वह एक दुर्लभ कविता संग्रह को बड़े ध्यान से पढ़ रहा था। उसकी आँखों में साहित्य के प्रति गहरा जुनून देखकर नेहा को एक अजीब-सी अपनेपन की भावना हुई। वह बिना सोचे-समझे उसके पास जा बैठी और धीरे से मुस्कुराई।
धीरे-धीरे, किताबों पर उनकी चर्चा दोस्ती में बदल गई। वे घंटों किसी लेखक या किसी किरदार पर बहस करते, और हर मुलाकात के बाद एक-दूसरे को और बेहतर तरीके से समझने लगते। आर्य को नेहा की ज्ञान की गहराई और उसके विचारों की स्पष्टता बेहद पसंद आती थी, जबकि नेहा आर्य के शांत स्वभाव और उसकी गहरी सोच से प्रभावित थी। लाइब्रेरी की पुरानी दीवारों के बीच, उनकी दोस्ती का पौधा धीरे-धीरे प्यार में पनपने लगा, जिसे दोनों ही महसूस कर रहे थे।
एक शाम, लाइब्रेरी बंद होने से ठीक पहले, आर्य ने नेहा को रोक लिया। उसके हाथ में वही कविता संग्रह था जिसे उसने पहली बार पढ़ते हुए देखा था। उसने किताब नेहा को देते हुए कहा, “इस किताब की हर कविता मुझे तुम्हारी याद दिलाती है, नेहा।” उसकी आवाज़ में एक अनकहा इज़हार था। नेहा की आँखें चमक उठीं। उसने मुस्कुराते हुए किताब ली और उसके पन्नों को पलटा। इस पल ने उनकी खामोश मोहब्बत को एक नया नाम दे दिया, जो किताबों के पन्नों से शुरू हुई थी।