एक समय की बात है, एक गरीब ब्राह्मण था जिसका नाम हरिदत्त था। उसके पास छोटी सी ज़मीन थी जिसे वह बड़ी मेहनत से जोतता बोता था। वह अपनी फसल की देखभाल करता, जिससे उसका और उसके परिवार का किसी तरह गुज़ारा हो पाता था। अभाव और निर्धनता हमेशा उसके जीवन का एक हिस्सा बनी रहती थी, जिससे वह कभी मुक्त नहीं हो पाया था। उसकी मेहनत का फल उसे पूरा नहीं मिल पाता था।
एक दिन, अपने खेत में काम करने के बाद हरिदत्त एक पेड़ के नीचे सुस्ता रहा था। तभी उसकी नज़र एक फुर्तीले साँप पर पड़ी जो पास की एक बाँबी में तेज़ी से घुस गया। उसे देखकर हरिदत्त के मन में एक विचार आया, ‘शायद यही मेरे इस खेत का देवता है। मैंने कभी सच्चे मन से इसकी पूजा नहीं की, इसीलिए मुझे इतने दुर्दिन देखने पड़ रहे हैं।’ तुरंत ही वह एक बड़े कटोरे में ताज़ा दूध लेकर आया। उसने दूध बाँबी के पास रखा, आँखें बंद कर हाथ जोड़कर श्रद्धा से पूजा की।
पूजा समाप्त होने पर जब उसने अपनी आँखें खोलीं, तो एक आश्चर्यजनक दृश्य देखकर वह हक्का-बक्का रह गया। दूध का कटोरा खाली था, और उसकी जगह एक चमकदार, अद्भुत मणि जगमगा रही थी। हरिदत्त को यह समझते देर नहीं लगी कि खेत के रक्षक सर्पराज ने उसका दूध स्वीकार कर लिया था और बदले में उसे यह अमूल्य मणि उपहार में दी थी। इस अनमोल उपहार को देखकर ब्राह्मण की खुशी का कोई ठिकाना न रहा।
उस दिन के बाद, हरिदत्त ने यह नियम बना लिया। वह हर रोज़ उसी श्रद्धा और भक्ति के साथ कटोरे में दूध लेकर आता और सर्पराज की पूजा करता। सर्प रोज़ाना दूध पी लेता और बदले में वहाँ एक चमचमाती मणि छोड़ जाता। धीरे-धीरे हरिदत्त के गरीबी के दिन दूर होने लगे। उसके जीवन में अब समृद्धि और खुशहाली ने अपना स्थान बना लिया था। उसका घर धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया था।
घर में उसकी पत्नी और बेटे, देवदत्त, को भी इस चमत्कार की जानकारी मिल गई थी। रोज़ एक मणि के मिलने की बात से वे भी अत्यंत प्रसन्न थे और उनके दिन सुखमय बीत रहे थे। लेकिन धीरे-धीरे हरिदत्त के बेटे देवदत्त के मन में गहरा लालच घर करने लगा। वह सोचने लगा कि यह सर्प हर दिन केवल एक मणि ही हमें देता है, जबकि इसकी बाँबी में तो ऐसी अनगिनत मणियाँ होंगी।
देवदत्त के मन में यह विचार आया कि अगर इस सर्प को मार दिया जाए, तो उसकी सारी मणियाँ हमें एक साथ मिल जाएँगी। हम गाँव के सबसे धनी व्यक्ति बन जाएँगे और फिर पूरी शान-शौकत और ठाठ-बाट से अपना जीवन बिताएँगे। इसी लोभपूर्ण विचार से प्रेरित होकर देवदत्त अब एक उचित अवसर की तलाश में रहने लगा, जिससे वह अपनी कुटिल योजना को अंजाम दे सके।
एक दिन हरिदत्त को किसी ज़रूरी काम से गाँव से बाहर जाना पड़ा। जाने से पहले उसने अपने बेटे देवदत्त को समझाया, “बेटा, मेरे पीछे खेत के देवता सर्पराज को दूध पिलाना मत भूलना। उन्हीं की कृपा और दया से हमारे जीवन में इतनी खुशहाली और समृद्धि आई है।” देवदत्त ने अपने पिता को आश्वस्त करते हुए कहा, “हाँ पिताजी, आप बिल्कुल चिंता न करें। मैं यह काम पूरी ईमानदारी से करूँगा।”
अगले दिन सुबह-सुबह, देवदत्त पिता की तरह ही खेत पर पहुँचा। उसने दूध से भरा कटोरा साँप के बिल के पास रखा और थोड़ी दूरी पर लाठी लेकर खड़ा हो गया। जैसे ही साँप अपनी बाँबी से बाहर आया और दूध पीने लगा, देवदत्त ने बिना सोचे-समझे पूरी शक्ति से डंडा उसके सिर पर दे मारा। साँप बुरी तरह घायल हो गया और दर्द से तड़प उठा।
गुस्से में फुँफकारता हुआ वह तेज़ी से देवदत्त की ओर दौड़ा और उसे डस लिया। अपने प्रति की गई क्रूरता का बदला लेते ही वह तुरंत अपनी बाँबी में वापस चला गया। गाँव वालों को जब इस दुखद घटना का पता चला, तो वे दौड़ते हुए खेत पर पहुँचे। हरिदत्त के बाहर होने की बात सभी को पता थी, अतः उन्होंने मिलकर देवदत्त का अंतिम संस्कार कर दिया।
कुछ समय बाद जब हरिदत्त घर लौटा, तो उसे अपने बेटे के साथ हुई पूरी घटना का पता चला। बेटे के अज्ञानता और लालच में अंधे होने की बात सुनकर उसे बड़ा गहरा दुख हुआ। अपनी संतान की मृत्यु का असहनीय दर्द तो था ही, साथ ही खेत के देवता सर्पराज के नाराज़ होने का भय भी उसे सता रहा था। वह अपने बेटे के कर्म पर पश्चाताप से भर गया।
अगले दिन, दुखी मन से वह साँप की बाँबी के पास गया। वहाँ उसने दूध से भरा कटोरा रखा और हाथ जोड़कर सर्पराज से अपने बेटे की मूर्खता के लिए बार-बार क्षमा याचना करने लगा। थोड़ी देर बाद साँप बाँबी से बाहर निकला। उसके मुँह में एक चमकती हुई मणि थी। उसने वह मणि हरिदत्त को दी और गंभीर स्वर में कहा।
सर्पराज ने कहा, “भाई, मैंने तुम्हारी गरीबी देखकर ही तुम्हें मणियाँ देनी शुरू की थीं, ताकि तुम्हारे जीवन में सुख और खुशहाली आ सके। और तुम भी मुझे खेत का रक्षक देवता समझकर सच्ची श्रद्धा से मेरी पूजा करते थे। लेकिन अब न तो तुम्हारा वह निस्वार्थ भाव बचा है और न ही मेरा वह स्नेहपूर्ण भाव। वैसे भी, तुम कभी अपने बेटे की मृत्यु का घाव नहीं भुला पाओगे और न ही मैं अपने सिर पर पड़ी लाठी की चोट को भूल सकता हूँ।
“इसलिए, अब तुम यहाँ कभी मत आना। यह आखिरी मणि है जो मैं तुम्हें दे रहा हूँ।” इतना कहकर साँप अपनी बाँबी में वापस चला गया और फिर कभी बाहर नहीं आया। हरिदत्त भारी और दुखी मन से वापस लौट आया। बेटे की मृत्यु के साथ-साथ, अब एक और गहरा घाव उसके जीवन में हो गया था – विश्वास के टूटने और लालच के परिणाम का दर्द – जिसे वह जीवन भर कभी भुला नहीं पाया।