माँ और बेटे का वर्जित आकर्षण: एक अंतरंग यात्रा

मेरी माँ एक ऐसी स्त्री थीं जिनकी उपस्थिति ही किसी भी कमरे को भर देती थी। उनके शरीर का हर अंग एक कला की तरह सुडौल और आकर्षक था। जब वह चलती थीं तो उनके गदराये हुए स्तन हल्के से हिलते थे, और उनके नितंबों का उभार उनकी साड़ी के नीचे से स्पष्ट झलकता था। मैं अक्सर उन्हें देखता रह जाता था, और मेरा मन उनकी ओर आकर्षित होने लगता था। एक अजीब सी कामना मेरे भीतर जागने लगी थी, जिसे मैं समझ नहीं पा रहा था। वह मेरी माँ थीं, फिर भी मेरे विचार उन्हें एक स्त्री के रूप में देखने लगे थे।

मैं एक शांत और पढ़ाकू लड़का था जो उच्च शिक्षा के लिए अपने घर से दूर एक छात्रावास में रहता था। वहाँ की एकाकी जिंदगी ने मुझे अकेलापन महसूस कराया। इस अकेलेपन को भरने के लिए मैं अक्सर अश्लील फिल्में देखने लगा और स्वयं को संतुष्ट करने का प्रयास करता था। धीरे-धीरे, यह आदत एक लत बन गई। मेरे मन में विचार आने लगे कि काश मैं किसी के साथ वास्तविक संबंध बना पाता। और फिर, अजीब तरह से, मेरी कल्पनाओं में मेरी माँ की छवि आने लगी।

मैं अपने कमरे में अकेले बैठकर उनके बारे में सोचता था। उनके कोमल हाथ, उनकी मुस्कान, और उनके शरीर के वे हिस्से जिन्हें देखना मेरे लिए वर्जित था। मैं उनके नितंबों के आकार के बारे में सोचता, उनके स्तनों की कल्पना करता, और इन्हीं विचारों के साथ स्वयं को तृप्त करने लगा। यह एक गहरी और गुप्त इच्छा बन गई जिसने मेरे मन को जकड़ लिया। मैं जानता था कि यह गलत था, परंतु मेरी कामनाएँ मेरे नियंत्रण से बाहर होती जा रही थीं।

कुछ दिनों बाद, मुझे छुट्टियों में घर जाना था। इस बार मेरी यात्रा का उद्देश्य सिर्फ परिवार से मिलना नहीं था। मेरे मन में एक गहरी और अंधेरी योजना पनप रही थी। मैंने तय कर लिया था कि इस बार मैं अपनी इन भावनाओं को दबाऊँगा नहीं। मैंने विभिन्न परिदृश्यों की कल्पना की, कैसे मौका मिलेगा, क्या कहूँगा, और कैसे आगे बढ़ूँगा। मेरा दिल तेजी से धड़कता था, डर और उत्सुकता के मिश्रित भावों से भरा हुआ।

जब मैं घर पहुँचा और माँ से मिला, तो मेरी साँसें रुक सी गईं। समय ने उन पर कोई असर नहीं दिखाया था। उनकी आँखों में वही चमक थी, और उनके शरीर का आकर्षण और भी प्रबल हो गया लगता था। जब वह मेरे लिए खाना परोसने झुकतीं, तो उनकी साड़ी के नीचे से उनके नितंबों का आकार स्पष्ट दिखाई देता। मेरा मन तुरंत कामुक विचारों से भर जाता। मैं उन्हें तुरंत अपने आगोश में लेना चाहता था, परंतु साहस नहीं जुटा पा रहा था। मैं बस इंतज़ार करता रहा, उचित अवसर की प्रतीक्षा में।

एक दिन की बात है, मेरे पिताजी को किसी जरूरी काम से पाँच दिनों के लिए शहर से बाहर जाना था। इसका मतलब था कि माँ अगले कुछ दिनों तक घर पर अकेली रहेंगी। मेरे लिए यह एक सुनहरा अवसर था। मैंने हिचकिचाते हुए माँ से पूछा, “मम्मी, क्या मैं आज रात आपके साथ ही सो सकता हूँ? मुझे अकेले डर लगता है।” माँ ने मुस्कुराते हुए सिर हिला दिया और कहा, “बेशक, बेटा। आ जाओ।” उनकी इस सहमति ने मेरे दिल में एक अजीब सी खुशी भर दी। रात का खाना खाने के बाद, हम दोनों बिस्तर पर चले गए। कमरे में हल्का अंधेरा था, और सन्नाटा छाया हुआ था। मैं उनके पास लेटा हुआ था, और मेरी नज़रें बार-बार उनके शरीर के उभारों पर टिक जाती थीं।

मैंने महसूस किया कि माँ भी बेचैन सी थीं। शायद पिताजी के लंबे समय तक अनुपस्थित रहने के कारण उन्हें भी शारीरिक स्नेह की कमी खल रही थी। धीरे-धीरे, मैंने अपना हाथ बढ़ाया और उनकी पीठ पर रख दिया। उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। फिर मैंने थोड़ा और साहस जुटाया और अपना हाथ उनके नितंबों की ओर घुमाया। उनके शरीर में एक हल्का सा झटका सा दौरा, परंतु उन्होंने कुछ नहीं कहा। इस मौन समर्थन ने मुझे और भी उत्साहित कर दिया। मैंने आगे बढ़कर उनके स्तनों को स्पर्श किया। इस बार उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया और फुसफुसाते हुए कहा, “बेटा, यह क्या कर रहे हो? मैं तुम्हारी माँ हूँ।” उनकी आवाज़ में डर था, परंतु इनकार नहीं।

मैंने उनकी आँखों में देखते हुए कहा, “माँ, मैं क्या करूँ? मैं इतने दिनों से अकेला हूँ। मेरे भीतर की इच्छाएँ मुझे खा रही हैं। आप ही बताइए, मैं किसके पास जाऊँ?” मेरी बात सुनकर उनका चेहरा गंभीर हो गया। वह कुछ पल चुप रहीं, मानो अपने भीतर की लड़ाई लड़ रही हों। फिर उन्होंने एक गहरी साँस ली और बोलीं, “पर मैं तो तुम्हारी माँ हूँ, बेटा। यह सही नहीं है।” मैंने उनका हाथ थाम लिया और कहा, “एक माँ अपने बेटे की जरूरत के लिए इतना तो कर ही सकती है।” यह सुनकर उनकी आँखों में एक अलग ही चमक आ गई। शायद उनके भीतर भी लंबे समय से दबी हुई इच्छाएँ जाग उठी थीं। वह धीरे से बोलीं, “ठीक है… फिर चलो।”

उन्होंने धीरे-धीरे अपनी साड़ी उतारनी शुरू की। जैसे-जैसे कपड़े उतरते गए, वैसे-वैसे मेरी साँसें तेज होती गईं। उनका शरीर वाकई में एक कलाकृति था। उनके स्तन गोल और भरावदार थे, नितंब सुडौल और आकर्षक, और उनकी त्वचा चाँदनी की तरह चमक रही थी। मैं उनसे पूछ बैठा, “मम्मी… आपने इससे पहले कितने लोगों के साथ संबंध बनाए हैं?” वह शर्माते हुए बोलीं, “तुम्हारे पापा… और तुम्हारे चाचा… और अब तुम।” यह सुनकर मेरे भीतर एक अजीब सी ईर्ष्या जाग उठी, परंतु साथ ही उत्तेजना भी बढ़ गई। मैंने तेल निकाला और अपने उत्तेजित अंग पर लगाया। फिर मैंने पूछा, “कहाँ डालूँ?” माँ ने लजाते हुए कहा, “जहाँ छेद हो, वहीं।”

मैंने धीरे से तेल लगाया और एक झटके में अपने आप को उनके भीतर उतार दिया। माँ ने तीखी सिसकारी भरी, “आह!” उनकी आवाज़ में दर्द था, परंतु आनंद भी। मैं तेज गति से आगे-पीछे होने लगा। वह जोर-जोर से कराहने लगीं, “उह! आह! और जोर से, बेटा! आज मेरी इच्छाएँ पूरी कर दो!” मैं उनके कान में फुसफुसाया, “तुम सच में एक रंडी हो… आज मैं तुम्हारा भोसड़ा बना दूँगा।” मेरी बात सुनकर वह और भी उत्तेजित हो गईं और चिल्लाने लगीं, “हाँ! चोदो! जोर से चोदो, मादरचोद! अपनी माँ का चूत फाड़ डालो! मैं तो एक बड़े लंड के लिए तरस रही थी!” उनकी बातें सुनकर मेरा उत्साह और बढ़ गया। मैंने और तेजी से धक्के देना शुरू किए। कुछ ही देर में, मैंने अपना वीर्य उनके मुँह में डाल दिया। पहला दौर समाप्त हुआ। दोनों हमदम पर थे। माँ ने मुस्कुराते हुए कहा, “थोड़ी देर आराम कर लो… फिर चलते हैं।”

कुछ घंटों बाद, जब मैं उठा, तो देखा कि माँ पहले से भी ज्यादा बेचैन थीं। उनकी आँखों में फिर से वही भूख थी। वह बोलीं, “बेटा, फिर से चोदो मुझे… जल्दी।” मैं फिर से उत्तेजित हो उठा और दूसरे दौर की शुरुआत की। इस बार माँ ने कहा, “तुम… तुम तुम्हारे पापा से भी अच्छे हो… अब तुम ही मेरी हवस पूरी करोगे।” उस रात के बाद, हमारे बीच एक नया और गुप्त संबंध बन गया। जब भी मौका मिलता, हम एक-दूसरे के शरीर की गर्माहट में खो जाते। एक दिन, जब माँ रसोई में अकेली खाना बना रही थीं, मैं वहाँ पहुँच गया। मैं उनके नितंबों को देखता रहा, और उन्होंने महसूस कर लिया। मैंने पीछे से जाकर उन्हें जोर से पकड़ लिया और अपने शरीर से दबा दिया। वह उतावली हो उठीं। मैं उन्हें बाथरूम में ले गया और वहीं, फर्श पर, हमने फिर से अपनी इच्छाओं को तृप्त किया। माँ की चीखें पूरे घर में गूँज रही थीं, “उह! आह! और जोर से! मेरी चूत फाड़ डालो!”

एक दिन, जब हम ऐसे ही लिपटे हुए थे, अचानक पिताजी अंदर आ गए। उन्होंने हमें उस अवस्था में देख लिया। उनका चेहरा क्रोध से लाल हो गया। वह माँ की ओर देखते हुए गुर्राए, “रंडी! अपने ही बेटे से चुद रही है! क्या मैं कम चोदता हूँ तुझे?” फिर, अचानक ही, उनका गुस्सा एक अलग रूप लेने लगा। उन्होंने कहा, “रुको… मैं भी आता हूँ।” और वह भी हमारे साथ जुड़ गए। अब पिताजी और मैं, दोनों मिलकर माँ को संतुष्ट करने लगे। माँ चिल्ला रही थीं, “उह! आह! दोनों मिलकर! आज मेरा भोसड़ा फाड़ दो!

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