सतविंदर अपने कामों को जल्दी-जल्दी निपटा कर घर से निकलने ही वाला था कि केट ने पूछा, “अभी से?” सतविंदर जोश से भरा हुआ था क्योंकि उसके माता-पिता, बीजी और दारजी, पूरे 21 साल बाद लंदन आ रहे थे। एयरपोर्ट पहुँचने में दो घंटे लगने थे, इसलिए वह बेताब था। पास बैठे अनीटा और सुनीयल थोड़े उदास लग रहे थे। सतविंदर ने आँखों ही आँखों में केट से इसका कारण जानना चाहा। उसने इशारों में उसे शांत रहने और जाने का संकेत दिया, फिर आश्वस्त करते हुए कहा, “जाओ, बीजी दारजी को ले आओ। तब तक हम सब नहा-धोकर तैयार हो जाते हैं।”
सूचना प्रौद्योगिकी में इंजीनियरिंग करके, आईटी बूम के दौरान सतविंदर लंदन आ गया था। उसे अक्सर अपने इस निर्णय पर गर्व महसूस होता था। नौकरी मिलने पर, उसने रिचमंड इलाके में एक छोटा कमरा किराए पर लिया, जिसकी ढलान वाली छत की खिड़की से टेम्स नदी दिखती थी। मकान मालिक की बेटी केट अक्सर उसके लिए दरवाजा खोलती-बंद करती। जल्द ही दोनों में दोस्ती हो गई और केट उसे लंदन घुमाने लगी। सतविंदर ने पाया कि केट बहुत ही सुलझी हुई, समझदार और सौहार्दपूर्ण लड़की थी। दोनों एक-दूसरे के प्रति आकर्षण महसूस करने लगे। धर्म की दीवार के बावजूद, केट की भलमनसाहत ने सतविंदर का मन मोह लिया और उसने अपने माता-पिता से चिट्ठी द्वारा शादी की अनुमति माँगी। उनकी शर्त थी कि शादी अपने गाँव में हो। सतविंदर, केट और उसके माता-पिता के साथ अपने गाँव आया और धूमधाम से शादी हुई। गोरी, विदेशी बहू होने के बावजूद, केट ने अपने विनम्र स्वभाव से सबका मन मोह लिया।
कुछ सालों में, सतविंदर और केट के घर में दो नन्हे बच्चों की किलकारियाँ गूँजने लगीं, जिससे उनकी गृहस्थी परिपूर्ण हो गई। बीजी बहुत प्रसन्न थीं कि पराये देश में भी उनके बेटे का खयाल रखने वाली मिल गई थी। सतविंदर को भी बना-बनाया घर मिला और उसने ससुर के व्यवसाय में हिस्सेदारी कर ली। आज वह लंदन के जाने-माने रईसों में गिना जाता था, जिसकी तरक्की का श्रेय उसकी शादी को भी जाता था। सतविंदर और केट बच्चों के साथ अक्सर भारत जाते थे, लेकिन जैसे-जैसे बच्चे बड़े हुए, उनकी शिक्षा और छुट्टियों की योजनाओं के कारण भारत आना कम होता गया।
पिछले वर्ष दीवाली पर, केट ने बीजी से फोन पर बात करते हुए कहा कि बच्चों की व्यस्तता के कारण उनका आना संभव नहीं है। फिर अचानक केट के मुँह से निकला, “आप लोग क्यों नहीं आ जाते यहाँ?” तब से कागजी कार्यवाही पूरी करते-कराते आज बीजी और दारजी लंदन आ रहे थे। दोनों बहुत हर्षोल्लासित थे, क्योंकि वे पहली बार हवाई सफर कर रहे थे और वह भी विदेश का। इस उम्र में उन्हें उत्साह के साथ-साथ इतनी दूर यात्रा करने की थोड़ी चिंता भी थी। दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे को देखकर दोनों को सुखद आश्चर्य हुआ। आखिरकार, वे लंदन पहुँचे, जहाँ सतविंदर पहले से ही प्रतीक्षारत था। गले मिलते ही तीनों की आँखें नम हो गईं। बीजी की एक हलकी सी हिचकी बंधते ही सतविंदर ने टोका, “अभी आए हो बीजी, जा नहीं रहे जो रोने लगे।” बेटे की बड़ी गाड़ी में सवार होकर, लंदन की हरियाली, सुहाना मौसम, सड़कों का अनुशासन और शांति ने उनका मन मोह लिया।
सतविंदर ने बताया, “यह तो आज आप के आने की खुशी सी है जो इतनी धूप खिली है वरना यहां तो अकसर बारिश ही होती रहती है।” वाकई, अंग्रेज स्त्री-पुरुष ऐसे हलके-फुलके कपड़ों में घूम रहे थे मानो गर्मी से बुरा हाल हो रहा हो, जबकि बीजी और दारजी ने हलके कोट पहने हुए थे। उनके लिए तो यह मौसम भी कुछ ठंडा ही था। घर के दरवाजे पर केट उनका इंतजार कर रही थी। उसने पूरी खुशी के साथ उनका स्वागत किया। बीजी और दारजी बेहद प्रसन्न थे। उन्हें उनके कमरे में छोड़कर, केट उनके लिए चाय-नाश्ते का इंतजाम करने में लग गई।
बीजी अब और प्रतीक्षा नहीं कर पा रही थीं, “मेरे पोता-पोती कित्थे होंगे? उनानूं देखण वास्ते आंखें तरस गी।” दारजी की नजरें भी जैसे उन्हें ही खोज रही थीं। सतविंदर ने दोनों को आवाज लगाई तो अनीटा और सुनीयल आ गए। बीजी और दारजी फौरन उन दोनों को गले से लगा लिया, “हुण किन्ने वड्डे हो गए नै।” सुनीयल ने बेरुखी से कहा, “यह कौन सी भाषा बोल रहे हैं, डैड? हमें कुछ समझ नहीं आ रहा। और बाई द वे, हमारे नाम अनीटा और सुनीयल हैं, अनीता व सुनील नहीं।” सुनीयल की इस बदतमीजी पर सतविंदर की आँखें गुस्से में उबल पड़ीं, तभी केट वहाँ आ गई। उसने बात संभालते हुए सबको चाय-नाश्ता दिया और बच्चों को अपने कमरे में जाने को कह दिया, “जाओ, तुम दोनों अपनी पढ़ाई करो।”
शाम तक बीजी और दारजी घर के नक्शे से अभ्यस्त हो चुके थे। उन्हें पता लगा कि यहाँ कपड़े वाशिंग मशीन में धुलते हैं और बर्तन डिशवॉशर में साफ होते हैं। रसोई में माइक्रोवेव और इंडक्शन गैस के साथ वाशिंग मशीन देखकर बीजी को थोड़ा आश्चर्य हुआ तो केट ने बताया कि यहाँ ऐसा ही होता है। सिंक के नल से पानी पीना भी उन्हें थोड़ा अजीब लग रहा था। केट ने समझाया, “बीजी, यहाँ सारा पानी पीने योग्य है, आप किसी भी नल से पानी पी सकते हैं। इसीलिए दवाएँ बाथरूम के कैबिनेट में रखने का रिवाज होता है।” साथ ही, उसने इशारे में यह भी कह दिया कि बच्चे अधिक टोका-टाकी पसंद नहीं करते क्योंकि वे दूसरी संस्कृति में पले-बढ़े हैं। दोनों की संस्कृति के अंतर के कारण रिश्तों में दरार नहीं आनी चाहिए। केट समझदार थी जो घर-परिवार को साथ लेकर चलना चाहती थी।
पराए देश, पराई संस्कृति में पल रहे बच्चों का क्या कसूर? अनीटा अभी 15 वर्षीया थी और सुनीयल 18 वर्ष का। मगर जिस देश में वे पैदा हुए, बड़े हो रहे थे, उस की मान्यताएँ तो उनके अंदर घर कर चुकी थीं। उन्हें बीजी और दारजी से बात करना जरा भी पसंद न आता। उनके लाए कपड़े व तोहफे भी उन्हें बिलकुल नहीं भाए। बीजी व दारजी भी समझ रहे थे कि अपने ही पोता-पोती के साथ संपर्क-पुल बनाने के लिए उन्हें थोड़ा और धैर्य, थोड़ी और कोशिश करनी होगी। उन्हें कोई शिकायत नहीं थी। दारजी का मानना था, “अब बच्चों के पास रहने के लालच में हम उनकी तरक्की के आड़े तो नहीं आएँगे न।”
अगले हफ्ते, सतविंदर व केट, बीजी व दारजी को लंदन के प्रसिद्ध म्यूजियम घुमाने ले गए। नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम में डायनासोर की हड्डियों का ढाँचा और अन्य विशालकाय जानवरों के परिरक्षित शरीर देखकर दारजी बेहद खुश हुए। विक्टोरिया व अल्बर्ट म्यूजियम में संगमरमर की मनमोहक मूर्तियाँ, टीपू सुलतान के कपड़े और तलवार, तथा दुनियाभर से इकट्ठा किए हुए बेशकीमती कालीन व बर्तन देखकर वे हक्के-बक्के रह गए। दारजी ने कहा, “इन गोरों ने केवल भारत ही नहीं, पूरी दुनिया ही लूटी।”
घूमने के बाद, वे सब विक्टोरिया व अल्बर्ट म्यूजियम के पिछवाड़े बगीचे में बैठकर कॉफी और चिप्स का आनंद उठाने लगे। वहाँ झूले-सी अद्भुत कुर्सियाँ थीं जिन पर हर उम्र के लोग झूल रहे थे। बगीचे के बीचोंबीच लगे फव्वारों और कुंड में बच्चे खेलते-कूदते हुए पानी के छींटे उड़ाकर हँस रहे थे। बीजी व दारजी बहुत खुश हुए। पर वहीं बगीचे में, भीड़ के बीच, बीजी ने अपने बगल में दो लड़कियों को एक-दूसरे की गोद में लेटे, शारीरिक स्पर्श करते और होंठों पर चूमते देखा। बीजी यह देखकर अवाक रह गईं। उनकी आँखें आश्चर्य में फैल गईं, और फिर शर्म के मारे स्वयं ही झुक गईं। किंतु उन्होंने पाया कि किसी और को इस दृश्य से कोई सरोकार न था। सब अपने में मस्त थे। बीजी व दारजी के गाँव की तुलना में, लंदन एक बहुत भिन्न संस्कृति वाला देश था, जहाँ सबको अपने जीवन के निर्णय लेने की आजादी थी।
घर पर, बीजी ने ध्यान दिया कि सुबह सतविंदर और केट अपने-अपने दफ्तर निकल जाते। न कुछ खाकर जाते और न ही लंच ले कर जाते। बीजी से रहा न गया, “पुत्तर, तुम दोनों भूखे सारा दिन काम में कैसे बिताते हो? कहो तो सुबह मैं परांठे बना दिया करूँ?” सतविंदर ने हँसकर कहा, “बीजी, यहाँ का यही दस्तूर है। हम रास्ते में एक रेस्तरां से सैंडविच और कॉफी लेते हैं। लंच में भी हम दफ्तर के पास कुछ खाते हैं। यहाँ ‘ऑन द गो’ खाने का रिवाज है—चलते जाओ, खाते जाओ, काम करते जाओ। आखिर टाइम इज मनी।” बीजी को यह जानकर भी हैरानी हुई कि लंदन कितना महंगा शहर है।
एक बार जब सतविंदर और केट उन्हें भी रेस्तरां ले गए तो बिल में कुछ अलग हिसाब आया देख दारजी बोल बैठे, “यह रेस्तरां तो और भी महंगा है।” सतविंदर ने समझाया, “नहीं दारजी, है तो उतना ही जैसे अन्य रेस्तरां। लंदन में एक नियम है, यदि आप खाना ले कर चले जाते हैं तो कम पैसों का आएगा और यदि बैठकर खाते हैं तो अधिक पैसे देने होंगे। तभी यहाँ ऑन द गो खाने का रिवाज अधिक है। आप इस सब की चिंता मत करो, आप तो इस सब का आनंद उठाओ।” सतविंदर अपने बीजी व दारजी की सेवा कर बहुत खुश था। अगले दिन से घर यथावत चलने लगा।
बीजी और दारजी ने ध्यान दिया कि अनीटा को छोड़ने एक काला लड़का आता है जो उम्र में उससे काफी बड़ा प्रतीत होता है। फिर एक शाम, खिड़की पर बैठी बीजी की पारखी नजरों ने अनीटा और उस लड़के को चुंबन करते देख लिया। उनका कलेजा मुँह को आ गया। ‘जरा सी बच्ची और ऐसी हरकत?’ सोचकर बीजी चुप रह गईं। परंतु उस रात उन्होंने दारजी के समक्ष अपना मन हलका कर ही डाला, “निक्की जेई कुड़ी हैगी साड्डी…की कीत्ता?” दारजी की बात से वे कुछ शांत हुईं, “तू सोच-सोच परेशान न होई…कुछ हल खोजते हैं।”
सुबह बीजी चाय का कप थामे, बालकनी में खड़ी रिचमंड हिल और टेम्स नदी देख रही थीं। मन तो पिछली रात के दृश्य के बाद से उद्विग्न था। कुछ देर में केट भी अपना कप लिए बीजी के पास आ खड़ी हुई। तभी बीजी ने मौके का फायदा उठा केट से पिछली रात वाली बात कह डाली, “संकोच तो बहुत हुआ पुत्तर पर अपना बच्चा है, टाल भी तो नहीं सकते न।” केट ने संक्षिप्त शब्दों में बीजी को विदेश में रह रहे लोगों की जिंदगी के एक महत्त्वपूर्ण पहलू से अवगत करा दिया, “आप की बात मैं समझती हूँ, बीजी, और यह बात मैं भी जानती हूँ, लेकिन यहाँ हम बच्चों को यों टोक नहीं सकते। यह उनकी जिंदगी है। यहाँ भारत से अलग संस्कृति है। छुटपन से ही लड़के-लड़कियों में दोस्ती हो जाती है और कई बार आगे चलकर वे अच्छे जीवनसाथी बनते हैं। कई बार नहीं भी बनते। पर यह उनका निजी निर्णय होता है।”
बीजी को यह बात पसंद नहीं आई मगर वे चुप रह गईं। परंतु अपने स्कूल जाने को तैयार अनीटा ने उनकी सारी बातें सुन लीं। वह सामने आई और उन्हें देख मुँह बिचकाती हुई अपने विद्यालय चली गई। जाते हुए जोर से बोली, “मॉम, आज शाम मुझे देर हो जाएगी। मैं अपने बॉयफ्रेंड के साथ एक पार्टी में जाऊँगी, मेरी प्रतीक्षा मत करना।” उसकी बेशर्मी और हिम्मत पर बीजी अवाक रह गईं। लेकिन केट बस ‘ओके डार्लिंग’ कह अपने दफ्तर जाने को तैयार होने में व्यस्त हो गई। वहाँ के अखबार से दारजी बीजी को खबरें पढ़कर सुनाते जिससे उन्हें पता चलता कि ब्रितानियों में सबसे अधिक बाल अवसाद, किशोरावस्था में गर्भ, बच्चों में बढ़ती हिंसात्मक प्रवृत्ति, असामाजिक व्यवहार तथा किशोरावस्था में शराब की लत जैसी परेशानियाँ हो रही हैं, जिसका कारण अभिभावकों की ओर से रोक-टोक की कमी थी।
एक सुबह सतविंदर भी वहीं बैठा उन दोनों की यह गुफ्तगू सुन रहा था। उसने कहा, “दारजी, यहाँ आप बच्चों को सिर्फ मुँहजबानी समझा सकते हैं, समझ गए तो बढ़िया वरना आपका कोई जोर नहीं। यहाँ कोई जोर-जबरदस्ती नहीं चलती। आप बच्चे को गाल पर तो क्या पीठ पर धौल भी नहीं जमा सकते, यह अपराध है। मेरा एक मुलाजिम है जिसका छोटा बेटा बिना देखे सड़क पर दौड़ गया। पीछे से आती कार से टक्कर हो गई। वह बच्चे को अस्पताल ले कर भागा। अच्छा हुआ कि अधिक चोट नहीं आई थी। कुछ दिनों बाद वह बच्चा एक दिन अचानक दोबारा सड़क पर बिना देखे दौड़ लिया। इस बार उसके पिता ने उसकी पीठ पर दो धौल जमाए और उसे खूब डाँटा। पर इस बात के लिए उस पिता की इतनी निंदा हुई कि पूछो ही मत।”
बीजी का मत था, “पर बेटेजी, यह तो सरासर गलत है। आखिर माँ-बाप, घर के बड़े-बुजुर्ग और टीचर बच्चों का भला चाहते हुए ही उन्हें डाँटते हैं। बच्चे तो आखिर बच्चे ही हैं न। बड़ों जैसी समझ उनमें कहाँ से आएगी? शिक्षा और अनुभव मिलेंगे, तभी न बच्चे समझदार बनेंगे।” सतविंदर ने कहा, “आप की बात सही है, बीजी। बल्कि अब यहाँ भी कुछ ऐसे लोग हैं जो आप की जैसी बातें करते हैं, पर यहाँ का कानून…” सतविंदर की बात अभी पूरी नहीं हुई थी कि अनीटा कमरे में आ गई, “ओह, कम ऑन डैड, आप किसे, क्या समझाने की कोशिश कर रहे हो? यहाँ केवल पीढ़ी का अंतर नहीं, बल्कि संस्कृति की खाई भी है।”
जब से अनीटा ने बीजी और केट की बातें सुनी थीं तब से वह उनसे खार खाने लगी थी। उसने उनसे बात करनी बिलकुल बंद कर दी। जब उनकी ओर देखती तभी उसके नेत्रों में एक शिकायत होती। उनकी कही हर बात की खिल्ली उड़ाती और फिर मुँह बिचकाती हुई कमरे में चली जाती। बीजी का मन बहुत दुखता किंतु वे कर भी क्या सकती थीं। सतविंदर अपने कारोबार में व्यस्त, केट अपने दफ्तरी काम में व्यस्त, सुनीयल अपने कॉलेज में व्यस्त। खाली थे तो बस बीजी और दारजी।
केट, सतविंदर यानी सैट को बता रही थी, “सैट, सुनीयल को अपने आगे की शिक्षा हेतु वजीफा मिला है। उसने आज ही मुझे बताया कि उसके कॉलेज में आयोजित एक दाखिले की प्रतियोगिता में उसने वजीफा जीता है। यह दो साल का कोर्स है और पढ़ने हेतु वह पाकिस्तान जाएगा।” दारजी का चौंकना स्वाभाविक था, “पाकिस्तान? पाकिस्तान क्यों?” केट ने समझाया, “दारजी, वह कॉलेज पाकिस्तान में है, और सुनीयल ने वहीं कोर्स करने का मन बना लिया है। वैसे भी, यहाँ सब देशी मिलजुल कर रहते हैं। भारतीय, पाकिस्तानी, श्रीलंकन, बांग्लादेशी, यहाँ सब बराबर हैं।” दारजी ने कहा, “पुत्तर, यहाँ सब बराबर हैं पर अपने-अपने देश में नहीं।”
लेकिन जब बच्चों ने मन बना लिया हो और उनके माता-पिता भी उनका साथ देने को तैयार हों तो क्या किया जा सकता है। दारजी बस टोक कर चुप रह गए। उनके गले से यह बात नहीं उतर रही थी कि लंदन में पला-बढ़ा बच्चा आखिर पाकिस्तान जाकर आगे की शिक्षा क्यों हासिल करना चाहता है? ऐसा ही है तो भारत आ जाए, आखिर अपना देश है। इन सब घटनाओं ने बीजी व दारजी को कुछ उदास कर दिया था। कितनी खुशी के साथ, इतना कुछ सोचकर वे दोनों लंदन आए थे पर यहाँ खुद को अपने ही परिवार में बेगाना सा अनुभव कर रहे थे।
एक शाम बीजी, दारजी से बोलीं, “चलो जी, अस्सी घर चलें। अब तो हम ने अपने बेटे का घर देख लिया, उसकी गृहस्थी में तीन महीने भी बिता लिए।” अब उन्हें अपने घर की याद आने लगी थी, जहाँ पड़ोसी भी उन्हें मान देते थे और उनसे मशविरा लेकर अपने निर्णय लिया करते थे। दारजी सारे अनुभवों से अवगत थे। वे मान गए। अपने बेटे सतविंदर से भारत लौटने के टिकट बनवाने की बात करने के लिए वे उसके कक्ष की ओर जा रहे थे कि उनके कानों में सुनीयल के सुर पड़े, “जी, मैं खालिद हसन बोल रहा हूँ।”
‘सुनीयल, खालिद हसन?’ दारजी फौरन किवाड़ की ओट में हो लिए और आगे की बात सुनने लगे। सुनीयल बोल रहा था, “जी, मैं जानता हूँ कि सीरिया में हजारों ब्रितानी जाकर जिहाद के लिए लड़ रहे हैं। मुझे गर्व है।” फिर कुछ क्षण चुप रहकर सुनीयल ने दूसरी ओर से आ रहा संदेश सुना। आगे बोला, “आप इसकी चिंता न करें। मैंने देखा है सोशल नेटवर्किंग साइट पर कि वहाँ हमारा पूरा इंतजाम किया जाएगा, यहाँ तक कि वहाँ न्यूट्रीला भी मिलता है ब्रेड के साथ खाने के लिए। जब आप लोग हमारी सुविधाओं का पूरा ध्यान रखेंगे तो हम भी पीछे नहीं रहेंगे। जिस लक्ष्य के लिए जा रहे हैं, वह पूरा करेंगे।”
सुनीयल ने कहा, “मैं खालिद हसन, कसम खाता हूँ कि अपनी आखिरी साँस तक जिहाद के लिए लडूँगा, जो इसमें रुकावट पैदा करने का प्रयास करेगा, उसे मौत के घाट उतार दूँगा, ऐसी मौत दूँगा कि दुनिया याद रखेगी।” दारजी को काटो तो खून नहीं। यह क्या सुन लिया उनके कानों ने? उनके मन-मस्तिष्क में हलचल होने लगी। उनका सिर फटने लगा। धीमे पैरों को घसीटते हुए वे कमरे में लौटे और निढाल हो बिस्तर पर पड़ गए। उनकी सारी इंद्रियाँ मानो सुन्न पड़ चुकी थीं। उनकी ऐसी हालत देख बीजी घबरा गईं। उन्होंने पानी का गिलास पकड़ाया और थोड़ी देर सिर दबाया।
दारजी बस शून्य में ताकते बिस्तर पर पड़े रहे। करीब 15 मिनट बाद दारजी कुछ सँभले और उठ कर बैठ गए। वे अब भी स्वयं को असमर्थ पा रहे थे कि जो उन्होंने सुना था उसका विश्लेषण कैसे करें। क्या कुछ कह रहा था सुनीयल? क्या वह किसी आतंकवादी गिरोह का सदस्य बन गया है? क्या उसने धर्म परिवर्तन कर लिया है? क्या इसीलिए वह बहाने से पाकिस्तान जाना चाहता है? यह क्या हो गया उनके परिवार के साथ? अब क्या होगा? सोच-सोच वे थक चुके थे। निस्तेज चेहरा, निशब्द वेदना, शोक में दिल कसमासा उठा था। दारजी का सिर फटा जा रहा था। अखबारों में पढ़ते हैं कि जिहाद का काला झंडा खुलेआम लंदन की सड़कों पर लहराया गया, पर कौन विचार कर सकता है कि शिक्षित, संस्कृति व संपन्न परिवारों के बच्चे अपना सुनहरा भविष्य ताक पर रख, अपना जीवन बरबाद करने में गर्वांवित अनुभव करेंगे?
लेकिन दारजी हार मानने वाले इंसान नहीं थे। उन्हें झटका अवश्य लगा था, वे कुछ समय के लिए निढाल जरूर हो गए थे किंतु वे इस व्यथा के आगे घुटने नहीं टेकेंगे। उन्होंने आगे बात सँभालने के बारे में विचारना आरंभ कर दिया। सुबह केट को बदहवासी की हालत में देख बीजी ने पूछा, “क्या हो गया, पुत्तरजी?” केट ने उन्हें जो बताया तो उनके पाँव तले की जमीन हिल गई। अनीटा गर्भवती थी। और उसका बॉयफ्रेंड, वह काला लड़का कॉलेज में दाखिला ले, दूसरे शहर जा चुका था। अब घबराकर अनीटा ने यह बात अपनी माँ को बतलाई थी। बीजी के जी में तो आया कि अनीटा के गाल लाल कर दें किंतु दूसरे ही पल अपनी पोती के प्रति प्रेम और ममता उमड़ पड़ी। केट के साथ वे भी गईं डिस्पेंसरी जहाँ से उन्हें अस्पताल भेजा गया गर्भपात करवाने। सारे समय बीजी, अनीटा का हाथ थामे रहीं। उनकी बूढ़ी आँखों में अनीटा की इस स्थिति के लिए खेद झलक रहा था।
उस दिन से अनीटा का रवैया बीजी के प्रति थोड़ा नरम हो गया। धीरे-धीरे वह बीजी के साथ थोड़े समय के लिए बैठने लगी। अब यदि बीजी उसे ‘अनीटा’ की जगह आदतानुसार ‘अनीता’ पुकारतीं तो वह नाक-भौं न सिकोड़ती थी। केट ने भी उसमें यह बदलाव अनुभव किया था जिससे वह काफी खुश भी थी। बीजी उसे अपने देश, अपने गाँव की कहानियाँ सुनातीं। इसी बहाने वे उसे भारत की संस्कृति से अवगत करातीं। दादी-नानी की कहानियाँ यों ही केवल मनोरंजक मूल्य के कारण लोकप्रिय नहीं हैं, उनमें बच्चों में अच्छी बातें, अच्छी आदतें, अच्छे संस्कार रोपने की शक्ति भी है। अनीटा भी, खुद ही सही, राह चुनने में सक्षम बनती जा रही थी। उसमें बड़ों के प्रति आदर भाव जाग रहा था। अपने जीवन की ओर वह स्वयं की जिम्मेदारी समझने लगी थी। और सबसे अच्छी बात, अब वह सबसे हँसकर, नम्रतापूर्वक बात करने लगी थी।
अनीटा की ओर से बीजी व दारजी अब निश्चिंत थे। परंतु दारजी के गले की फाँस तो जस की तस बरकरार थी। जितना समय बीत जाता, उतना ही नुकसान होने की आशंका में वृद्धि होना जायज था। उन्हें जल्द से जल्द इसका हल खोजना था। अनुभवी दिमाग चहुँ दिशा दौड़कर कोई समाधान ढूँढ़ने लगा। शाम को दफ्तर से लौटकर केट ने सबको सूप दिया। बीजी और अनीटा बालकनी में बैठे सूप स्टिक्स का आनंद उठा रहे थे। सतविंदर अभी लौटा नहीं था। सुनीयल ने कक्ष में प्रवेश किया कि दारजी बोलने लगे, “बेटा सुनीयल, फ्रांस के नीस शहर में हुए हमले की खबर सुनी? इन आतंकवादियों को कोई खुशी नसीब नहीं होगी, ऊँह, बात करते हैं अमन-शांति की। बेगुनाहों को अपने गरज के लिए मरवाने वाले इन खुदगरजों को इंसानियत कभी भी नहीं बख्शेगी।” दारजी का तीर निशाने पर लगा। सुनीयल फौरन आतंकवादियों का पक्ष लेने लगा, “आपको क्या पता कौन होते हैं ये, क्या इनका उद्देश्य है और क्या इनकी विचारधारा? बस, जिसे देखो, अपना मत रखने पर उतारू है। सब आतंकवादी कहते हैं तो आपने भी कह डाला, ये आतंकवादी नहीं, जिहादी हैं। जिहाद का नाम सुना भी है आपने?”
दारजी ने उत्तर दिया, “शायद तू भूल गया कि मैं भारत में रहता हूँ जहाँ आतंकवाद कितने सालों से पैर फैला रहा है। और तू जिस जिहाद की बात कर रहा है न, मैं भी उसी सोच पर प्रहार कर रहा हूँ। यदि जिहाद से जन्नत का रास्ता खुलता है तो क्यों इन सरगनाओं के बच्चे दूर विदेशों में उच्च-शिक्षा प्राप्त कर सलीकेदार जिंदगी व्यतीत कर रहे हैं, क्यों नहीं वे बंदूक उठा कर आगे बढ़ते? और ये सरगना खुद क्यों नहीं आगे आते? स्वयं फोन व सोशल मीडिया के पीछे छिपकर दूसरों को निर्देश देते हैं और मरने के लिए, दूसरों के घरों के बेटों को मूर्ख बनाते हैं। तुम्हारी पीढ़ी तो इंटरनेट में पारंगत है। साइट्स पर कभी पता करो कि जिन घरों के जवान बेटे आतंकवादी बन मारे जाते हैं उनका क्या होता है। जो बेचारे गरीब हैं, उन्हें ये आतंकवादी पैसों का लालच देते हैं, और जो संपन्न घरों के बच्चे हैं उनका ये ब्रेनवॉश करते हैं। जब ये जवान लड़के मारे जाते हैं तो इनकी आने वाली पीढ़ी को भी आतंकवादी बनने का प्रशिक्षण देने की प्राथमिकता दी जाती है। अर्थात खुद का जीवन तो क्या, पूरी पीढ़ी ही बरबाद। लानत है इन सरगनाओं पर जो अपने घर के चिरागों को बचा कर रखते हैं और दूसरे घरों के दीपक को बुझाने की पुरजोर कोशिश में लगे रहते हैं।” दारजी ने कुछ भी सीधे नहीं कहा, जो कहा आज के आम माहौल पर कहा। फिर भी वे अपनी बातों से सुनीयल के भटकते विचारों में व्याघात पहुँचाने में सफल रहे। कुछ सोचता सुनीयल लंदन के सर्द मौसम में भी माथे पर आई पसीने की बूँदें पोंछने लगा। बुरी तरह मोहभंग होने के कारण सुनीयल शक्ल से ही व्यथित दिखाई देने लगा। मानो दारजी के शब्दों की तीखी ऊष्मा की चिलकियाँ उसकी नंगी पीठ पर चुभने लगी थीं।
अगले तीन दिनों तक सुनीयल अपने कमरे से बाहर नहीं आया। उसके कमरे की रोशनी आती रही, फोन पर बातों के स्वर सुनाई देते रहे। परिवार वाले नेपथ्य से अनजान थे, सो चिंतामुक्त थे। दारजी के कदम सुनीयल के कक्ष के बाहर टहलते रहते किंतु खटखटाना उन्हें ठीक नहीं लगा। उन्हें अपने खून और अपनी दिखाई राह पर विश्वास था। आखिर तीसरे दिन जब दरवाजा खुला तब सुनीयल ने दारजी को अपने समक्ष खड़ा पाया। उनकी विस्फारित आँखों में प्रश्न ही प्रश्न उमड़ रहे थे। सुनीयल ने बस एक हलकी सी मुस्कान के साथ उनके कंधे पर हाथ रखते हुए केट से कहा, “मॉम, मैं पाकिस्तान नहीं जा रहा हूँ। इतना खास कोर्स नहीं है वह, मैंने पता कर लिया है।” दारजी ने झट सुनीयल को सीने से चिपका लिया। सप्ताहांत पर सतविंदर जब बीजी व दारजी के भारत लौटने की टिकट बुक करने इंटरनेट पर बैठा तो यात्रा की तारीख पूछने की बात अनीटा ने सुन ली।
रोती हुई अनीटा ने पूछा, “बीजी, क्या मैं आपके साथ भारत चल सकती हूँ?” बीजी ने उसे गले से लगा लिया, “तेरा अपना घर है पुत्तर, चल और जब तक दिल करे, रहना हमारे पास।” सुनीयल भी सुबक रहा था, “मुझे यहीं छोड़ जाओगे क्या दारजी।” हवाईजहाज की खिड़की से जब बीजी और दारजी आकाश में तैर रहे बादल के टुकड़ों को ताक रहे थे, तब केट और सतविंदर के साथ कभी सुनीयल तो कभी अनीटा फैमिली सेल्फी लेने में मग्न थे।