सस्सी-पुन्नू और मिर्ज़ा-साहिबा की अमर प्रेम कथाएँ

पंजाब की प्राचीन लोक कथाओं में सस्सी और पुन्नू की प्रेम कहानी बहुत प्रसिद्ध है। सस्सी एक हिन्दू राजा की पुत्री थी, जिसे एक मुस्लिम धोबी ने पाला था। भविष्यवाणियाँ कहती थीं कि वह बड़ी होकर असाधारण प्रेम में पड़ेगी। एक दिन सस्सी ने कुछ व्यापारियों के चित्र देखे, जिनमें से एक बलूचिस्तान के युवा सौदागर पुन्नू का था। उसे देखते ही सस्सी पुन्नू के प्रेम में पड़ गई।

भाग्य ने उन्हें मिलाया, लेकिन उनका मिलन क्षणिक रहा। सस्सी के भाइयों ने पुन्नू को धोखे से वापस उसके देश भेज दिया। विरह की अग्नि में जलती हुई सस्सी ने रेगिस्तान पार करके पुन्नू तक पहुँचने का निश्चय किया। यह यात्रा बहुत कठिन थी और रेगिस्तान की भीषण गर्मी उसके कोमल शरीर के लिए असहनीय साबित हुई। सस्सी उसी तपती रेत में दफ़न हो गई।

उधर, पुन्नू भी सस्सी से मिलने को तड़प रहा था। एक चरवाहे से उसे सस्सी के दुखद अंत की ख़बर मिली। जिस स्थान पर सस्सी ने अंतिम साँस ली थी, वहीं पहुँचकर पुन्नू ने भी अपने प्राण त्याग दिए। इस प्रकार, उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन उनकी प्रेम कहानी आज भी अमर है और सच्चे प्रेम का प्रतीक बनी हुई है।

इसी तरह, दानाबाद गाँव के मिर्ज़ा और साहिबा की कहानी भी अटूट प्रेम का उदाहरण है। दोनों बचपन से साथ खेले और बड़े होते-होते उनका दोस्ताना रिश्ता गहरे प्यार में बदल गया। शायद मिर्ज़ा और साहिबा एक हो पाते, अगर उनके घरवाले उनके रिश्ते के ख़िलाफ़ न होते। वंज़ल ख़ान इस रिश्ते को स्वीकार करने को तैयार था, लेकिन साहिबा का भाई शमीरे किसी भी क़ीमत पर यह शादी नहीं चाहता था।

शमीरे ने जैसे-तैसे मिर्ज़ा को दानाबाद गाँव से दूर भेज दिया और साहिबा का विवाह कहीं और तय कर दिया। जब मिर्ज़ा को इस बात का पता चला, तो वह क्रोधित हो उठा। उसने तुरंत अपना घोड़ा तैयार किया और साहिबा को भगाने के लिए निकल पड़ा। मिर्ज़ा साहिबा को भगाने में कामयाब रहा, और रास्ते में वे थोड़ी देर आराम करने के लिए एक पेड़ की छाँव में रुके। मिर्ज़ा कुछ देर के लिए सो गया।

इस बीच, साहिबा ने मिर्ज़ा के तीर तोड़ दिए ताकि वह अपने भाइयों को चोट न पहुँचाए। वह जानती थी कि मिर्ज़ा की शक्ति उसके तीरों में थी और उसके भाई उनसे बच नहीं पाते। उसे विश्वास था कि वह अपने भाइयों को समझा पाएगी। लेकिन उसकी यह चाल उलटी पड़ गई। कुछ देर बाद मिर्ज़ा को घेर लिया गया और उसे मार दिया गया। मिर्ज़ा को एहसास हुआ कि यह सब साहिबा ने किया था।

साहिबा मिर्ज़ा की मृत्यु का सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकी और उसने स्वयं को भी समाप्त कर लिया। साहिबा बेवफ़ा नहीं थी। वह मिर्ज़ा से भी बेइंतहा प्यार करती थी और अपने भाइयों से भी। वह सही और ग़लत का निर्णय नहीं कर पाई, जिसके चलते दोनों प्रेमियों को अपनी जान गँवानी पड़ी। उनकी कहानी प्रेम और त्रासदी का एक मार्मिक उदाहरण है।

Leave a Comment