एक घने जंगल में एक शेर अपनी शेरनी के साथ रहता था। एक दिन, शेर भोजन की तलाश में निकला और पूरे दिन भटकने के बाद भी उसे कोई शिकार नहीं मिला। लौटते समय उसे एक छोटा सा सियार दिखा। शेर को लगा कि इस नन्हे जीव को मारना उचित नहीं है, इसलिए उसने ममतावश उसे अपने साथ घर ले जाने का निश्चय किया।
घर पहुंचकर, शेर ने अपनी शेरनी से कहा, “मुझे यह नन्हा सियार रास्ते में मिला था, पर इसे मारना ठीक नहीं लगा। यदि तुम चाहो, तो इसे खाकर अपनी भूख मिटा सकती हो।” शेरनी ने यह सुनकर कहा, “जब तुमने इसे प्रेम और ममता के कारण नहीं मारा, तो मैं इसे क्यों मारूँगी? यह यहीं हमारे साथ हमारे बेटे की तरह पलेगा।” और इस प्रकार सियार का बच्चा उनके साथ सुख और निश्चिंतता से रहने लगा।
कुछ समय बाद, शेरनी ने दो शावकों को जन्म दिया। सियार का बच्चा भी उनके साथ-साथ पलने लगा। शेरनी अपने बच्चों के साथ उसे भी दूध पिलाती और बड़े स्नेह से पालती थी। तीनों बच्चे साथ खेलते, कूदते और बड़े होकर शिकार की तलाश में भी साथ जाते। शेर और शेरनी उनमें कोई भेद नहीं करते थे; वे सियार के बच्चे को भी अपने बच्चों जैसा ही प्यार देते थे।
सियार-पुत्र को भी अपने भाइयों से बहुत सम्मान और स्नेह मिलता था। वह भी बड़े भाई की तरह उनका ख्याल रखता था। एक दिन, सियार का बच्चा दोनों सिंह-पुत्रों के साथ शिकार के लिए निकला। कुछ आगे जाने पर उन्हें एक हाथी दिखाई दिया। शेर के दोनों बेटे उस पर हमला करने की योजना बना रहे थे। जैसे ही वे उस पर झपटने वाले थे, सियार का बच्चा बोल उठा, “यह तो हमारा कुल-शत्रु है! और यह बहुत विशाल और बलशाली भी है। इससे लड़ना मूर्खता होगी। हमें यहां से भाग चलना चाहिए।”
यह सुनकर दोनों सिंह-पुत्रों की हिम्मत टूट गई। वे सियार-पुत्र के साथ भागकर घर वापस आ गए। लेकिन उनके चेहरे पर दुख और अपमान साफ झलक रहा था। घर आकर उन्होंने अपनी माँ से सियार-पुत्र के इस कायरतापूर्ण व्यवहार की शिकायत की। उन्होंने कहा, “बड़ा भाई बहुत कायर है! उसी के कारण आज हमारे हाथ से शिकार निकल गया। उसने कहा कि भाग चलो, और हमें चाहते हुए भी भागना पड़ा।” यह सुनकर सियार-पुत्र को बहुत गुस्सा आया।
सियार-पुत्र बोला, “तुमने मुझे कायर कहा! मैंने तो तुम्हें आने वाली मुसीबत से बचाया, और तुम उलटे मुझे ही बुरा कह रहे हो और मेरा अपमान कर रहे हो। अब मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा। चलो, लड़ने के लिए तैयार हो जाओ।” इस पर शेरनी ने उसे समझाते हुए कहा, “बेटे, ये दोनों तुम्हारे भाई हैं। तुम्हें इनसे लड़ना नहीं चाहिए, बल्कि प्यार से अपनी बात समझानी चाहिए। जब तुम सब मिलकर रहोगे, तभी लोग तुम्हारी शक्ति के सामने हार मानेंगे।”
“लेकिन इन दोनों ने मुझे कायर कहा! मैं यह अपमान कैसे सह सकता हूँ? मैं इन्हें माफ नहीं कर सकता,” सियार-पुत्र ने गुस्से में कहा। शेरनी ने समझाया, “बेटे, उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था। पर तुम्हारे और इनके स्वभाव में अंतर तो है ही। मैंने तुम्हें भी इनके साथ ही दूध पिलाया था, इसलिए मुझे लगा था कि तुममें भी वैसी ही वीरता आ जाएगी, जैसी सिंह-पुत्रों में होती है। पर मुझमें तुम्हें सियार के ही गुण दिखाई दे रहे हैं।”
शेरनी ने आगे कहा, “तो इससे पहले कि आगे चलकर कोई और मुसीबत खड़ी हो या ये दोनों तुमसे कुछ गलत कहें, तुम यहां से चले जाओ। क्योंकि तब हो सकता है कि मैं भी तुम्हारी रक्षा न कर पाऊँ!” यह सुनकर सियार-पुत्र दुख और अपमान से भर गया और वहां से चला गया। वह समझ गया था, ‘मैं शेर के बेटों के साथ रहा, शेरनी का दूध पिया और उसका लाड़-प्यार भी पाया, पर फिर भी मैं शेरों के गुण नहीं सीख पाया। अब मेरा अलग रहना ही उचित है।’